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मैथिली पोथी

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मैथिली साहित्यमे स्त्री लेखिकाक विरल संख्या सेहो झमटगर गाछक रूप लेलक अछि, किन्तु कतोक चुनौतीसॅं स्त्री- लेखिकाकेॅं नित्य  सोझां-सोझी होइत छनि। ओ की पहिरथि जकाॅं ओ की लिखथि,एकर घमर्थन पितृसत्तात्मक समाजक ठेकेदारक बीच होइत रहल अछि।एहन स्थितिमे  स्त्रीक लेखन अस्मिताक संघर्षक चुनौतीक रूपमे ठाढ़ भ’ जाइछ।

समाजक संरचनामे पितृसत्ता सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक व्यवस्था , मूल्य ,मर्यादा, आदर्श तथा संस्कारक विभिन्न रूपमे बड़ मेही ढंगसॅं बुनल गेल अछि। एहि सुनियोजित शोषण-उत्पीड़नक विरुद्ध विश्व भरिक वैचारिक चिंतनमे नारीवादी विमर्शक नव आयाम बनाओल गेल अछि। पश्चिममे स्त्री विमर्श शुरू करबाक श्रेय “सीमोन द बोउवार” केॅं छनि जे ‘ द सेकेंड सेक्स’ लिखि कए समाज मे तहलका मचा देलनि तथा परंपरागत सामाजिक संरचनाकेॅं झिंझोरि देलनि।

भारतमे सेहो एहि आंदोलनक आंच  पजरल आ विभिन्न भाषामे  महिलाक अस्मिता- रक्षणक गप कहल-सुनल, लिखल-पढ़ल जाइत रहल, जाहिमे पुरुष- लेखकक सहभागिता सेहो रहल। महिला-लेखनक केंद्रमे स्त्री अस्मिताक संघर्ष, अदम्य जिजीविषा, स्त्री स्वातंत्र्य, यौन उत्पीड़नक प्रति विद्रोह तथा अपन पहिचानक प्रति जागरूकताक संग सामाजिक यथार्थक अवलोकन आ ओकर बेलाग अभिव्यक्ति अछि आओर ओ  समकालीन साहित्यमे सशक्त हस्तक्षेपक माद्दा रखैत अछि।

वर्तमानमे मैथिली भाषामे सेहो बहुत रास स्त्री लेखिका स्वतंत्रता, समानता , न्याय आदि मूलभूत अधिकारक लेल संघर्षरत एवं सक्रिय छथि। लेखनक माध्यमसॅं ओ समाजक संकीर्ण मानसिकताक ऐना देखबैत छथि, समाजसॅं प्रश्न करैत छथि, आत्मविश्वाससॅं अपन सुख-दुख, आक्रोश आ असहमति व्यक्त करैत छथि,स्त्रीवादक वैचारिक साहित्यमे सतत समृद्धि आनि रहल छथि।

आइ हम दीपा मिश्र जीक जाहि पुस्तकक पाठकीय प्रतिक्रिया लिखि रहल छी ओकर शीर्षके वैचारिक घमासान मचब’ लेल पर्याप्त अछि। ई नाम किऐक? झांपल- तोपल नामो देल जा सकैत छलै! कथ्यक संप्रेषण लेल की देह उघाड़ब आ ओकर संपुट करब उचित! ओना एहि प्रश्नक उत्तरमे प्रतिप्रश्न कएल जा सकैछ जे कैशोर्यमे होमए बला हार्मोनल परिवर्तन देहक संग- संग भावनात्मक परिवर्तनक कारण सेहो बनैत छैक,तखन ओहिसॅं उद्वेलित भए ओहि अनुभूतिक वर्णन अग्राह्य किऐक?

विभिन्न भाषाक साहित्यमे कामविह्वला स्त्रीक मनोभावक खुलल वर्णन भेल अछि, महाकविक उपाधिसॅं विभूषित महाकवि कालिदास त’ उमा-महेश्वरक समागमक बखान सेहो कएलनि अछि, तखन दिक्कत कत’ छै? दिक्कत छैक जे स्त्रीक गर्भमे पलि, ओकर रक्तमज्जा सॅं विनिर्मित शिशु जाहि बाटें धरती पर अबै अछि, वयस्क भेला उत्तर अपर स्त्रीक ओहि अंगविशेषमे अपन पुरुषत्वक सार्थकता पबितो ओकरा मात्र अपन संपत्ति मानैत रहल अछि। अस्तु,ई जटिल विषय अछि, अनेक अतंर्विरोधक परिधि मे ओझरायल अछि, तैं एकरा छाड़ि हमर एतबहि कहब अछि जे जहिना अपन संतानक नामकरणक  अधिकार माए-बापक होइछ, ओहिना अपन साहित्यिक कृतिक नामकरणक अधिकार साहित्यकारक। एहि अधिकार पर प्रश्न उठाएब सर्वथा अनुचित।

दीपाजीक चेतना मात्र भावनात्मक नहिॅं अपितु बौद्धिकताक मानदंड पर आधारित अछि आ ओ निरंतर यथार्थवादी दृष्टिकोण, गहनता आ आत्मविश्वासक संग लिखि रहल छथि। यद्यपि “योनिक आत्मबोध” शीर्षक कविता छाड़ि देल जाइ  त’ अन्यान्य विषय पर गोटेक टापर रचना पहिनहुॅं भेल अछि आ आबहु आन रचनाकार लिखि रहल छथि। किन्तु एक ठाम प्राय: स्त्री-संबद्ध दैहिक,मानसिक आ सामाजिक स्थितिक स्वाभाविक आ मुक्त अभिव्यक्ति लेल दीपाजीक साहस प्रशंसनीय अछि।

मासिकधर्मक आरंभसॅं रजोनिवृत्तिक क्रममे होमएबला शारीरिक-मानसिक परिवर्तन, यौवनक आरंभमे विपरीतलिङ्गीक प्रति सहज आकर्षण, स्त्री-पुरुषक मध्य सामाजिक भेद-भाव, पढ़ल-लिखल स्त्रीक शिक्षाक अनुपयोग आ तज्जन्य स्त्रीक पीड़ा, वैवाहिक बलात्कार आदि ओहि सभ विषय पर दीपा खुलिक’ कलम चलौलनि, जाहि पर लिखबासॅं स्त्री स्वयं बचैत रहैत अछि। हुनक रचना कोनो तरहेॅं पुरुष विरोधी रचना नहिॅं थिक, जकरा  एहि पोथीक परिप्रेक्ष्य मे देखबाक क्रममे किछु पांती उद्धृत कए रहल छी-

हमर युद्ध त’ हमरा स्वयंसॅं अछि
हम रोज लड़ै छी
कियैक त’ शब्द छोड़ि हमरा लग कोनो अस्त्र नहिॅं।
हमर युद्ध ओहि हमरासॅं
जे सभ किछु बुझितो
हमरासॅं बाहर नहिॅं निकलैये।

गहना- गुड़ियाक मोहक जालमे ओझरायलस्त्रीक स्थिति हुनका सीदित करैत छनि आ कवयित्री कहि उठैत छथि-

कतेको ओझरायल रहि गेलीह
एहि गहनाक बीच
आ सीपक मोती कहिया हेरा गेलनि
बुझबो नहिॅं केलैथ।

बहुत पहिने महादेवी वर्मा  स्त्रीकेॅं सावधान करैत कहने छलीह-

जाग तुझको दूर जाना
बांध लेंगे क्या तुझे ये मोम के बंधन सजीले
 पंथ की बाधा बनेंगे तितलियों के पर रंगीले
विश्व का क्रंदन भुला देगी मधुप की मधुर गुनगुन..

मानव-मात्रक सर्वोपरि इच्छा होइत छैक अपन इच्छाक, अपन स्वतंत्र अस्तित्वक,अपन आत्मसम्मानक रक्षा कएल जाए। किन्तु स्त्रीक एहि निजताक कहियो सम्मान नहिॅं भेटलै आ तैं ओकर अन्तर्मनमे धधड़ा धधकैत छै,जकर अभिव्यक्ति भेल अछि एहितरहेॅं-

जीवन व्यक्ति विशेषक अपन थिक
ओ कोनो नैहर सासुरसॅं नहिॅं
हमर गाम हम अपनहि चुनब
समाजसॅं बाध्य भ’ क’ नहिॅं।
भीतरक धधड़ा
ई आगि हमर थिक
ई भीतरक धधड़ा हमर
हम आब डाहब अपन सबटा
मान अपमान पीड़ा उलहन
निकलब तपैत सोन सन
हम जरब की बचब
ओकर उत्तरदायित्व हमर रहत।

कतोक बंधन,कतोक जकड़न स्त्रीकेॅं कोना रक्तरंजित करैत छैक, ओकर छटपटाहटि कवयित्रीकेॅं उद्वेलित करैत छनि आ ओ प्रतिकारक बाट देखबैत कहि उठैत छथि-

सोनाक हो वा लोहा के
चटपटाहटि त’ एके छल ने
परंपराक रूढ़िवादिताक
ओ दंभ जे बाध्य करैत अछि
ओ दंभ जे बाध्य करैत अछि
ओ हमरा मान्य नहिॅं
अपन सामर्थ्य अपने बुझब आब आवश्यक
नहिॅं कहब सेहो सीखब आब जरूरी।

एत’  मोन पड़त अहाॅंकेॅं शिवमंगल सिंह सुमन जीक कवितांश-

हम पंछी उन्मुक्त गगन के
पिंजर पिंजरबद्ध न गा पाएंगे
 कनक तीलियों से टकराकर
 पुलकित पंख टूट जाएंगे।

कजरी लागल परंपराक खंडनक ओकालति करैतो हुनक लेखन विध्वंसक नहिॅं अपितु योजक छनि,व्रत-उपासक संस्कृतिक पोषक छनि,गामक भाषा-संस्कृतिक अनुरागी छनि, प्राचीन परंपराक नीक तत्वक आधुनिकताक संग समन्वयक आग्रही छनि।ओ स्वयं कहैत छथि-

लेकिन हमर कहब
 जे नब घर उठय आ पुरान घर फेरो बसय
हमरा पुराने घरके नव करबाक अछि
ओकरे मजगूत नींव पर
 नव मिथिला बसेबाक अछि।

अंतमे एतबहि कहब जे एहि निर्भीक स्वरक स्वागत हयबाक चाही। अनुप्रास प्रकाशनसॅं छपल एहि पोथीमे 64 गोट सशक्त आ सार्थक कविता अछि,जे पढ़ल जयबाक चाही।

साहित्य मानवीय परिवेशगत मूल्यक उद्घाटनक प्रयत्न थिक। ई मानव मे शुभ आ अशुभ, सुंदर आ असुंदर,ग्राह्य आ त्याज्यक  चेतना जागृत कए मनुष्यक मूल्यदृष्टि केॅं शिक्षित आ परिष्कृत करैत अछि। एहि प्रकारक साहित्य मनुष्यक सभ्यता आ संस्कृति सॅं सीधा संबंध रखैत अछि आ तैं ओ परिवेश तथा वातावरण सॅं कटि नहिॅं सकैत अछि। साहित्यक सर्जक केॅं अपन युगक सत्य , स्थिति- परिस्थिति तथा ओहेन परिस्थितियो मे काम्य परिवर्तनक शब्दबद्ध व्याख्या करबाक चाही।

एहि निकष पर जखन युवा कवयित्री श्रीमती रोमिशा जीक आंजुर भरि इजोत नामक काव्य -संग्रह पर दृष्टि देल, त’ पाओल जे ओ कविताक माध्यम सॅं स्त्रीक स्थितिकेॅं मानवीय संवेदनाक चश्मा सॅं देखबाक नेहोरा करैत अछि, सामाजिक विषमताक भीत हटयबाक ओकालति करैत अछि, स्वतंत्रताक नाम पर पसारल जा रहल अनेकानेक बंधन दिस आंखि खोलि देखबाक  आग्रह करैत अछि आ  प्रेम आ व्यापार मे अंतर दिस पाठकक ध्यान आकृष्ट करैत छथि।ओ स्त्रीकेॅं प्रेमक पर्याय आ प्रेमकेॅं जीवनक प्राणवायु बुझैत छथि।

स्त्रीक जीवनक विडंबना, अन्याय आ उपेक्षाक परत दर परतक नीचां दबल यात्रा, प्रत्येक यात्रा मे जीवनक कोनो न कोनो त्रासदी केर वर्णन, तथापि ओकर मोन मे बांचल प्रेम, सामंजस्य आ हानि-लाभ-विवेचनरहित समर्पण कविता सभहुक कथ्य अछि। यद्यपि आधुनिक समाजक स्त्री अपेक्षाकृत शिक्षित आ सशक्त भेल अछि परंच वेदना आ ओझराहटि  रूप बदलि- बदलि क’  सोझां अबैत छैक।

स्त्री- जीवनक अनेक यात्रा, उतार-चढ़ाव, स्त्रीक पराधीनताक संग स्वच्छंदताक हद पार कए अपना लेल आर कठिन बाट चुनब, ओकर दुर्बलता आ ओकर सामर्थ्य, ओकर स्वाभिमान आ ओकर समझौता आदि भावनाक  सशक्त भाषा मे मनोवैज्ञानिक चित्रण एहि कविता संग्रहक विशेषता थिक। रोमिशा जीक स्त्री पात्र विशाल मानव- प्रवाह मे बहैतो अपन अस्तित्व केॅं स्थापित कर’ चाहैत अछि, दायित्वक निर्वाह कर’ चाहैत अछि, परिवार आ समाजकेॅं जोड़िक’ राख’ चाहैत अछि।

हुनक कवितामे स्त्री- जीवन- दर्शनक  प्रकृति संग साम्य अनेक रूप मे,सुललित उपमाक संग सुंदर शब्द मे अभिव्यक्त भेल अछि।एक गोट सुंदर कवितांश द्रष्टव्य अछि-

धरती आ अकाशक होइत छैक मिलन
जाहि में मौन दैत अछि प्रेम केॅं नव अर्थ
जकरा सुरुजक ललौन भोरक संग
बुझैत अछि चिड़ै- चुनमुनीक कलरव
आ एहि कलरवक संग
जखन चिड़ै उड़ैत अछि  अकाश दिस
स्त्री घुरैत अछि अपन घरक बाट पर
सुरुज बनैत अछि ओकर यात्राक साक्षी

समाज द्वारा उपेक्षित स्त्रीक मनोभाव कवयित्रीकेॅं कचोटैत छनि,ओकर इच्छा- अनिच्छा हृदयक कोन मे नुकायल रहि जाइत अछि आ तैंयो आनन पर स्मित हास्य रखने ओ सभटा दायित्व निभबैत छथि-

किनको कहियो ई सुधि कहाॅं रहलै
कि एहन निष्कम्प शिखा बनि
अपनहि इच्छाकेॅं बाती बना
ओ कोना पसारैत अछि
भरि आंगन इजोत

स्त्री- जीवनक विसंगति आ प्रेमक विविध रूप सॅं इतर एहि संग्रह मे बहुत कम कविता छैक, किन्तु जे छैक ओ चिंतन करबा लेल विवश करैत छैक- तथाकथित विवेकी व्यक्तियो,नीक आ बेजाय सैद्धांतिक रूपेॅं बुझितो, मात्र स्वार्थक सिद्धि लेल अधलाहकेॅं अधलाह कहबाक साहस नहिॅं क’ पबै अछि,जकर परिणाम संपूर्ण समाज आ राष्ट्र भोगबा लेल अभिशप्त होइछ-

सभ कवि कलाकारक
आत्माक गहबर मे
उठैत अछि अगबे टीस
मुदा भोर होइतहि
ओ बनि जाइत अति
व्यवस्थापक सभसॅं पैघ खबास।

समाजक नीति-नियन्ता द्वारा स्थापित किंवा आदर्शक खांचा सॅं बाहर स्त्रीक निजताक ओकालति करैत कवयित्री जखन कहैत छथि-

अन्हार आ इजोतक बीच
कतेक काल खण्ड सॅं हेरि रहल अछि स्त्री
अप्पन निज अकाश
जाहि परहक चान सुरुज तरेगन
सभ ओकर होइ आ
जकरा देखि सकय ओ अपन दृष्टि सॅं…

एत’ मोन पड़ि जाइत अछि रोम्या रोलांक ई पांती-

“A man’s first duty is to be himself, to remain himself at the cost of self sacrifice.”

ई me आ myself कतेक जरूरी होइत छैक,ओ ओएह बुझि सकैत छथि जनिका एहि लेल संघर्ष कर’ पड़ैत छनि। जनिका लेल स्वतंत्र आकाश सहज सुलभ छनि ओ परवशताक पीड़ा कोना बुझि सकैत छथि?

कवयित्री प्राचीन अरुआयल, फुफड़ी लागल परम्पराक निर्वहण मे अपसियांत स्त्रीक आंखि खोलबाक प्रयासक संग आधुनिक सभ्यताक अन्धानुकरणक दुष्प्रभाव सेहो देखबैत छथि-

सत्य चुपचाप कोनो दोग मे
नुकायल रहैत अछि
अपनहि घर मे बेघर भेल
देखैत रहैत अछि
आधुनिकताक सेन्ह लागल
अपन घरक देबाल

कल्पनाजीवी कवयित्री भौतिकताक व्यामोह मे अन्हरायल, हानि-लाभक तराजू पर तोलायल जाइत व्यवसाय बनल प्रेम केॅं देखैत खिन्न त’ छथि, किन्तु पूर्णतःनिराश नहिॅं-

ओहने कोमल स्त्री सभ
जीवनक माटि कोड़ि
पुनः रोपैत छथि स्नेहक बीआ
स्त्रियेटा बुझैत छथि
कि युगक आंखिक पानि
बचाओल जा सकैत अछि
मात्र नि: स्वार्थ प्रेम मे विलीन भ’

किन्तु एत्तहि हुनक किछु वैचारिक विरोधाभास देखना जाइछ,जत’ एकदिस ओ नि: स्वार्थ प्रेमक गुणधर्म  केॅं नीक बुझैत छथि,दोसर दिस ओ लोकक परवाहि नहिॅं करबाक निर्देश सेहो दैत छथि जखन ओ कहैत छथि-

आब नहि डेराइ कलंक सॅं
नहिॅं धकाइ बताहि बनय सॅं
नहिॅं लड़ब आ खाली साहब
त’ जीतब कोना
हारले रहत मान
कियो नहिॅं देत कोनो ध्यान

कवयित्री यथार्थक कठोर धरातल पर ठोकर खेलो उत्तर विश्वासहीनताक शिकार नहिॅं बनैत छथि,ओ स्त्री-प्रेमक शाश्वतताक आख्यान लिखैत छथि-

विश्वास जे अहूॅं मे
हम होयब बचल कतहु न कतहु
प्रेम एतेक सहजता सॅं
नहिॅं बिला सकैत अछि शून्य मे

साहित्यकारक मर्यादा आजुक समय मे बांचल नहिॅं रहि गेल अछि, ओकर कलम विश्वप्रेमक कथा नहिॅं,मात्र मनोरम वाग्जाल पसारैत अछि, स्वार्थ सिद्धिक जोगाड़ करैत रहैत अछि,ई देखि कवयित्रीक हृदय मे कचोट होइत छनि आ ओ कविकेॅं सावधान करैत छथि-

“मंचक खबास बनि
पुरस्कारक ओरियान करैत
देखैत रहय साहित्यक सभ प्रपंच
नहिॅं,ई कवि होयब नहिॅं थिक
कवि माने
जीवन सॅं
मृत्यु दिस बढ़ैत समाजकेॅं
युवा आ स्वस्थ राखब”

कतेको ठाम अनुप्रासक छटा सॅं सत्यक कुरूपताकेॅं झांपि मात्र बाह्यमनोहर काल्पनिक संसारक सृजन कएनिहार केॅं देखि स्पष्टत: बजैत छथि-

मुदा जीवन सॅं फराक
किन्नहुॅं नहिॅं होइत अछि कविता
आ कविता सॅं फराक
कोना भ’ सकैत अछि जीवन

धर्मक नाम पर पसारल जाइत पाखण्ड दिस, कुत्सित होइत जीवन- दर्शन दिस इंगित करैत छथि कवयित्री “कनैत अछि गंगा” कविता मे-

सभहक आंखि मे पसरल अछि मोहक लाली
धर्मक पाखण्ड चिल्हा जकाॅं डेन पसारने
मंडरा रहल अछि मोक्षक मार्ग केर महत्त्व बतबैत
पूरा शहरक आंखि मे चलि रहल ठेकेदारी
पाप पुण्य मुक्ति आ मोक्षक

एकर सभहक अतिरिक्त हुनक कविता मातृत्वकेॅं स्त्रीक अधिकार बुझैत सामाजिक अनुशासनक बेड़ी तोड़ब स्वाभाविक बुझैत अछि,पुरुषत्वक मिथ्यादंभक मुंह पर थापड़ मारैत अछि, किंतु एत्तहु ओहि घेर सॅं नहिॅं बहराइत अछि। तैं कहल जा सकैत अछि एहि संग्रहक कविता विभिन्न परिस्थिति मे  स्त्री- हृदय मे उठय बला भावनाक बेलाग अभिव्यक्ति अछि। कवयित्री कोनो निष्कर्ष पर पहुंचबाक अथवा आदर्श स्थिति थोपबाक हड़बड़ी मे नहिॅं छथि।

कविताक संबंध मे अनुभूतिक गप बेर बेर कहल जाइत अछि, मुदा ओ अनुभूति ककर? कविक किंवा समाजक? जॅं समाजक अनुभूति कविक अनुभूति  बनि व्यक्त होइछ, ओकर परिमार्जनक खगताक मुनादी करैछ, परिवर्तनक बाट देखबैत अछि, तखने कविता अपन अर्थवत्ता प्राप्त करैछ।

रोमिशाजीक कविता मे यथार्थ अछि, प्रेम अछि,स्त्रीक अंतर्द्वंद्व आ आत्मविश्लेषण अछि, किन्तु जे नहिॅं अछि ओ अछि निराकरणक बाटक दिग्दर्शन! एकटा सामान्य पाठक जकाॅं हम चाहब जे अगिला संग्रह मे इहो तथ्य आबय आ अपन सबल उपस्थिति देखा सकय।तखनहिॅं महादेवी वर्माक स्वर मे स्वर मिलबैत हम सभ बाजि सकब

“भारतीय नारी जाहि दिन अपन संपूर्ण प्राण-प्रवेग सॅं जागि सकत, ओहि दिन ओकर गति रोकब ककरो लेल संभव नहिॅं।”

संपूर्ण संग्रह मे मैथिलीक टिपिकल शब्द-प्रयोगक लालित्य प्रशंसनीय अछि, किंतु  कतौ-कतौ केर अर्थ मे केॅं के प्रयोग( कोनो खराब भाव केॅं हृदय मे बचबाक संभावना)

(कोनोटा सामर्थ्य कहाॅं होइत छैक दिमाग केॅं) अखरैत अछि।

संक्षेप मे “आंजुर भरि इजोत” संग्रह- योग्य पोथी अछि,एकर स्वागत प्रबुद्ध पाठकवर्ग द्वारा  हयबाक चाही।रोमिशा जीक सशक्त लेखनी केॅं साधुवाद आ अशेष शुभकामना।

मिथिलामे एकटा कहावत अछि “ब्याह सँ बिध भारी।” किएक ते ब्याह होयते भरि बरख सब दिन कोनो नै कोनो पाबनि लागल रहैत अछि आ पावनि माने बिधक भरमार आ सब बिध बिधान केँ क्रमशः याद राखब अपना मे एकटा अजगुत बात अछि, कोनो घर मे जे बूढ़ पुरान मैया बाबी  होयत छथिन ते घर के कहे टोल परोसक  जग जाजन के बिध व्यवहार हुनके माथे होयत छनहि, आ से सबटा विध व्यवहार ओ नीक जेना सम्हारि लैत छलखिन मुदा आजुक नव परिवेश नव नव विध व्यवहार,ओहियो सं बेसी अपन गाम घर छोड़ि परदेश बसब जग परोजन बाहरे करब स्वयं मे एकटा चुनौती पूर्ण काज अछि।

अहि सब चुनौती कें समाधान करैत एकटा अमूल्य पोथी हमरा हाथ मे भेटल अछि “मिथिलाक वैवाहिक परम्परा आ गीतनाद।” एहि पोथीक लेखिका छथि ‘स्वर्णिम किरण झा’। जेना कि पोथीक नामहि सँ स्पष्ट अछि मिथिलाक वैवाहिक परम्परा अर्थात मिथिला मे ब्याह कोना होयत अछि कोन कोन बिध होयत अछि ओहि मे की सामग्री सब जुटान करबाक चाही, कखन कोन देवता पितर केँ सुमरबाक चाही सबटा प्रश्न के एक हल ई पोथी अछि।

आय सबगोटे दोसर प्रांत दोसर भाषा भाषी वा एना कहि जे टी भी सिरीयलक  नकल करैत छि। ब्याह सँ पहिने हलदीक बिध, मेहंदीक बिध, बरातिक बीच जयमाल वा अन्यानय बिध सब होयत अछि तें कि लोक अपन बिध कात क देत? कथमपि नै। बड़क परीछन हेबे  करत, पीठारक  ठक बक पुछले जेतैन, कोबर मे नैना जोगिन बना बाम छथि कनिया दहिन छथि सारि पुछले जेतैन आ तखन पुनः बड़ कनिया एक दोसर के माला पहिरेबे करथिन।

सब बिधमे अलग अलग वस्तु जातक उपयोग, तकर ओरियौन आ एतबे नै, सब बिध समय सँ होय, तकर चटकैती सेहो बहुत महत्व रखैत अछि। सब विध लेल अलग अलग अरिपनक सेहो विधान अछि ,जे एहि पोथी मे यथोचित स्थान देल अछि, जेना महुअकक अरिपन, पाबनि-तिहारक अरिपन, इत्यादि।

एहि  पोथी मे बड़ पक्ष आ कनिया पक्षक सब विध वर्णित अछि। मैथिलक परिवारमे बड़क घर मे ब्याह दिन बहुत बेसी विध नै होयत अछि मुदा कनिया ठाम बिधे विध जेना मातृका पूजा, आज्ञा डाला, परीछन आम-महु ब्याह,सोहाग,नैना-जोगिन,ओठंगर, गौरी पूजन, निरीक्षण, कन्यादान, लाबा छिरियायब, सिंदूरदान, घोघट,  चुमाओन, महुगक, चतुर्थी आ दनही एतबा बिधक बाद ब्याह सम्पन्न मानल जायत अछि।

ई ते भेल ब्याह लागले बरसाइत, मधुश्रावणी,साँझ पावैन आ तुसारी सेहो। तहिना बड़क ठाम सब बिधमे  कनियाक लेल भाड़-दौर नबका लत्ता कपड़ा गहना  गुडिया बिधक सब सामग्री पठाओल जायत अछि। अहि सब बिध-व्यवहारक विस्तार सँ वर्णन’मिथिलाक वैवाहिक परम्परा आ गीतनाद’ पोथी मे भेट जायत।

पोथीक पूर्वार्द्ध पूर्णत: विवाह आ दुरागमनक विध पर केन्द्रित अछि। ओतहि उत्तरार्द्धमे  सुहागिनक तीन टा मुख्य पाबनि, सांझ, बरसाइत आ मधुश्रावणी केर विध-विधान आ कथा इत्यादिक वर्णन अछि। गाम सं विवाहक तुरंत बाद नगर-महानगर विस्थापित होइत मिथिलानि लोकनिक लेल ई खण्ड अतिमहत्वपूर्ण भ जाइछ। एतेक धरि जे बेटीक सासुर मे होमय बला प्रमुख पाबनि कोजागराक विध व्यवहार सेहो एहि पोथी मे वर्णित अछि।

पोथीमे वर्णित विध व्यवहार मुख्यतः मैथिल ब्राह्मण समुदायक परम्परा पर आधारित अछि। एहि सं पोथीक शीर्षक ‘मिथिलाक वैवाहिक परम्परा आ गीतनाद’ कनि असंगत भ जाइछ। लेखिका द्वारा एहि तथ्य कें आमुख वा कोनो आरम्भिक पाठमे फरिछा देब नीक रहितय।

ओना त जखन “कोस कोस पर बदलय पानी, चार कोस पर वाणी” तखन सबटा क्षेत्र आ समुदाय केर विध एक पोथीमे समेटब अवश्य एकटा अत्यंत कठिन काज हेतैक। तेहन स्थितिमे सझिया विध सबहक ई गुलदस्ता ‘गागरमे सागर’ कहल जा सकैछ।  संगहि ई कहबामे कोनो हर्ज नहि जे ई पोथी प्रत्येक बेटीक सांठमे देल जेबाक चाही जाहिसं विध व्यवहार सबहक ‘रेडी रेकॉनर’ बेटी-पुतोहू सभ संग देश-विदेशमे उपस्थित रहय।

विभेदकारी मनोवृतिक एहि समाजमे दलित आ स्त्री सभदिन पिसाइत रहल अछि। ई आइ सँ नै अदौ सँ चलैत आबि रहल अछि जे हमर समाज स्त्री आ दलित केँ पएरक नीचाँ लतखुर्दन करै मे गौरव बुझलक। मैथिली उपन्यास  ‘दाग’ मे स्त्री आ दलितक पक्षमे ठाड़ होइत लेखक आजुक समाजक यथार्थ-कथा कहैत छथि। एकटा एहन समाज जे सभदिन पुरुषसत्ताक समर्थक रहल अछि। एकटा एहन समाज जाहि मे सभदिन दबल-कुचलल लोककेँ जीबाक लेल, विनिमय आ खेखनी करैत, दोसराक दया अर्जित करबाक लेल विवश कयल जाइत अछि।
स्त्री आ दलित अदौसँ पिसाइत आबि रहल अछि। मुदा दलित सँ बेसी स्त्री सभठाम पिसाइत रहली, ओ चाहे सवर्ण घरक होथि वा दलित घरक। ओकरा जीवा लेल नितदिन अपन अस्तित्वक आहुति देब’ पड़ै छनि। वास्तव मे मुँहगर पुरुख द्वारा बनाओल समाजक ई विडंबना थिक। नहि जानि कहिया धरि रहत!
स्त्री आ दलित दुनू पर एतय विस्तृत विमर्श आ चर्चा अछि। मुख्य पात्र पंडित जीक चालि-चरित्रक आडंबर सेहो। जातिक खोल ओढ़ने पंडित जीक पाखंण्डी विचारधारा अनावृत होइत अछि। मुँह पर भरिगर शब्द पान सुपारी जकाँ चिबबैत स्वर। उचगर नाक बला लोककेँ देखार करैत एकटा दस्तावेज थिक ई उपन्यास।
सुभद्रा मने मन सोचि रहलिह, सैह जहिना सेठक बौहु सेठानी तहिना नरेना चमारक बौहु चमाइन बनल रहय?
ई वैह मुँहपुरुख लोकनिक सोच नइँ थिक जे अपना घरवालीक संसार देहरि आ ड्योढि़क भीतर बुझैत आएल छथि? माने स्वामीक रुपमे प्रतिष्ठित पुरुषक अनंत बलात्कार मुँह सीबि क’ सहू आ ओकरा लेल बच्चा जनमबैत लालन पालन करैत मरि जाउ।ओ मरैए पहिने तँ विधवा कहाउ! अहाँ मरब पहिने तँ ओ शान सँ दोसर बियाहि आनत। मुदा किछु बाजबो कोना करू, लोक की कहत–जकरे संग भागलि तकरे सँ लडै़ यए!…
ठीके! की एही दुआरे सुभद्रा पंडितक खुट्टासँ रस्सा तोड़ि भागलि छलि जे फेर दोसरा खुट्टा मे खुटेस देल जाएब। ओह! यएह सब सहैत रहलह तोँ हे सुभद्रा… जा हे सुभद्रा! सुभद्राकेँ स्वीकार नहि होइत अछि समाजक ई जाति-कुजाइत बला प्रथा। ओ चाहैत अछि एहि गाम मे एहि सभसँ फराक एकटा मनुष्यताक जाति आ पाखंड संँ फराक विचारक लोक होइक जे स्त्री आ पुरुष दुनूक लेल एकहि रंग स्वच्छंदता प्रदान करय।
स्त्रीक कोनो घर नहि होइत अछि, स्त्री स्वयं में एकटा घर थिक। स्वाभाविक छै घर मे घर कोना अटतै ! ओ जतय ठाड़ होइत अछि ओकर घर ओतहि सँ शुरू होइत अछि। तहिना स्त्रीक कोनो जातिओ नहि, ओ जकरे संग रहैत अछि ओकरे जातिक होइत अछि। चाहे ओ ठकुराइन, चमइन आ पंडिताइन किऐक ने होइ।
मुदा ताहि सभसँ फराक जाति होइत अछि मनुष्ताक जकरा बुझेबाक लेल पंडितक पढ़लि-लिखलि बेटी सुभद्रा नारायणक प्रतिभा देखि घर छोड़ैत अछि। जाति-पाति सँ फराक  मनुक्खक  एक टा जाति बनेबाक लेल (खुट्टा मे बांन्हल स्त्रीक पएर आ आँखि पर चढ़ल करिया पट्टी  हटेबाक लेल)।
पढ़बा लिखबामे मदति केनिहार नारायण राममे, जकर परिवार सदति समाजक ठेकेदार पंडितजी सभक अत्याचारक शिकार होइत रहल अछि, ताहि नारायणक बात-व्यवहार मे ओकरा मनुष्यताक झलक देखाइ छै। ओ नारायणकेँ गमैत अछि, आ निर्णय लैत अछि जे ओ एक टा शुरुआत अवश्य करत। समाजक कुण्ठा बदलबाक। से ओ नारायणक संग प्रेम क’ कोर्ट मे विवाह क’ लैत अछि। ओकरा लगैत अछि जे प्रेमसँ बेसी जाति-पातिक कुरीति आ प्रपंच हटय समाजसँ। एही लेल ओ विवाह क’ निकलि जाइत अछि।
 पंडितक  बेटी दलितसँ विवाह क’ लिअय, ई समाज पर ठनका खसबसँ बेसी दु:खद आ दुर्भाग्यपुर्ण गप्प छलै। एक तरहेँ गाम समाज मे दाग लगा जाइ छै ओकर सभक किरदानी आ तेँ कम्मल ओढि घी पीबय बला सभकेँ अपन नाक कटैत बुझाइ छनि। तत्क्षण ओ दुनू, गाम समाजक द्रोही बनि जाइत अछि। नारायण एकटा कविक कलमक शिकार भ’ सुभद्रा हरणक अभिनेता बनैछ। ओना सुभद्रा सेहो डाक बाबुक बेटीक लेल,  सुभद्रा इज माइ हीरोइन (आइडल) बनि जाइ अछि।
सुभद्रा आ नारायण दुनू समाज मे स्थापित करैत अछि एहि गप्पकेँ जे प्रेमो सँ उच्य स्थान थिक मनुक्खक, प्रेम सेहो ओतय बाँचल अछि जतय बाँचल अछि अखनो मनुष्यता। आ एहि मे सफल भ’ लक्ष्य पूर क’ सुभद्रा स्वयं सफल  होइ अछि।  सुभद्रा नेन्ने सँ देखैत आएल अछि जे ओहि टोल मे सभदिना मरल गायक खाल खिचाइत अछि आ बाभन टोलमे  संस्कारक खाल ओढि कए, बिलैया ठोकि अंगनाक भीतरे, जीबैत  मनुक्खक खाल खिचाइत अछि।
जाति पातिक खोल फेकि एकटा मनुष्यताक जाति होइक अपन समाज मे ताहि लेल उपन्यासक नायिका सुभद्रा सदति तत्पर रहैत अछि। दस बरख बाद जहन सुभद्रा आ नारायण राम दिल्ली सँ गाम घुमैत अछि तँ आसक दीप टिमटिमाइत छै ओकरा मनमे।  जहन  देखैत अछि बुलबुल पाठकक अध्यक्षतामे युवा मोर्चाक उर्जा सँ भरल प्रगतिशील कार्य करैत, धनेसर सन लोक केँ सुधरैत आ एक गतिमति संँ समाजक कुप्रथा सभ लेल बुलन्दी सँ विरोधक स्वर बहराइत तँ ओ आश्वस्त होइत अछि। ओकरा लगैत छै, जे ओकर सपना छलै से देरियो सँ सही साफल अवश्य भेटतै।
परंच नारायणक अहंकार पुरुख होएबाक भान मे लेल प्रण केर समापन करबामे विफल रहैत अछि बहुत दूर धरि। नारायण राम नहि चाहितो अपना भीतरक टीस सँ मुक्त नइँ भ’ सकल। तेँ देखाइत अछि जे ओकरा भीतरक दलित अखनो जीबैत अछि आ तेँ ओ सवर्ण घरक बेटी सुभद्राकेँ देखा ओ सभटा काज करैत अछि जे ओकरा पसिन नहि छै।
नारायण दलित होएबाक कारने नेन्नासँ आइ धरि अपमानित अबस्से होइत आएल अछि । सवर्णक कएल अनीतिपूर्ण व्यवहार संँ अपन बाप, पित्तीक अपमान होइत देखैत आयल अछि। अपन माए, बहिन, पितिआइन केँ शोषित होइत देखने अछि। से सब सुभद्रा केँ सेहो बुझल छै, जाहि कारणे सुभद्रा आइ ओकरा संग छै। ओ टीस सदति नारायणक करेज मे पाकल घाव जकाँ  टभकैत रहैत छै। नारायण संस्कारी होइतहुँ  ओ सभ काज क’ जाइ अछि जे ओकर विचारक विपरीत छै।  मुदा अपन प्रण  स्मरण होइते  ओकरा अपन गलतीक भान सेहो होइ छै आ तेँ नारायण अंत मे सुभद्रा संँ माफी मांगि लैत अछि।
स्त्री तैयो बहुत ठाम निरुपाय होइत अछि। ओकरा सदति ओकर आत्मा, ओकर संवेदना मर्दित होइत महसूस करै छै। चाहे ओ सवर्ण घरक स्त्री होथि वा दलित घरक, अनेक बेर ओ पएर तरक चुट्टी पिपरी जकाँ मिराइत आएल अछि। ओकर जीवन दलितो सँ बेसी विचित्र अछि।
तहन तँ ई अवश्य बदलत जहन  स्त्रीकेँ स्वयं बोध होएतनि एहि बातक आ ओ शक्तिशाली हैती ! जबाव दै लेल समर्थ्यवान सेहो होमय पड़तनि। से तहने सम्भव होएत  जखन ओ स्वावलंबी होएतीह। सम्भवत: जखन ओ शिक्षित होएतीह।
मुदा सुभद्रा आ नारायण रामक अबोध बालक अंकुरक छाती पर जे  “दाग” पड़ल ओकर की? पच्चीस-पचास साल बादो करबे करत सवाल–“जखन ओ पैघ हैत आ अयना मे देखत अपन चेहरा आ निहारत अपन उघार देह, झरकलहा दाग देखैत जरूरे करत सवाल–ई ओकर कोन अपराधक सजा थिक?”
ई पोथी एक बेर सभ केँ पढ़बाक चाहियनि। ओना सभ केँ ई पोथी नीक नहि लगतनि, खासक’ हुनका लोकनिकेँ जे मनुक्ख मनुक्ख मे भेद करै छथि,  एक टा केँ पैघ आ एक टा केँ हीन बुझैत छथि। लेखक केँ शुभकामना आ बधाइ जे ओ आगुओ एहिना बेबाकी सँ लिखथि।
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