कविता

सिपाहीक छुट्टी

 

खिड़कीक पट्टा धेने
भरफोड़ीक सारी पहिरने
आंखिपर मुस्की दैत
ठोढ़ पर नोर समेटने
ब’र के विदा करैत छलीह नवकनियाँ

आठे दिन पहिने त’ हाथ धेने रहथि
कहने रहथि कोहबरेमे
सिपाहीक कनियाँ भेलहुँ अहाँ
किछु वचन दीय’

हम दुश्मनसँ लड़ब
त’ अहाँ ओकर प्रभावसँ
हम समयसँ लड़ब
अहाँ ओकर बहावसँ
वचन दीय’
कि अहि आंखिमे नोर नहि लायब
जहिखन हम सीमान पर जूझब
अहाँ हमर शक्ति बनि जायब

हमर-अहाँक बस मोनक मेल
शरीर त’ सीमा के अर्पण अइ
प्रेम कही या कही समर्पण
ओतहि हमर जीवन-मरण अइ।

नवी मुंबई (महाराष्ट्र) निवासी दीपिका झा पेशासँ शिक्षिका छथि। संगहि अपन मातृभाषामे लिखबाक रुचि छनि। सामाजिक काजमे सक्रिय छथि। दहेज मुक्त मिथिला के सह- संचालिका आ "मैथिली जिंदाबाद" ऑनलान पत्रिकाक सह-संपादक छथि। प्रकाशित पोथी : * आकांक्षा (हिन्दी काव्य-संग्रह) * मैथिली गीतमाला (मैथिली गीत- संग्रह) * अंतिम स्त्री (शीघ्र प्रकाश्य मैथिली कथा-संग्रह)

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