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मीना झा

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                 यौ सरकार ,सुनू गोहारि,बड्ड दूर अछि हमर गाम!

                 अहाँ देल देश निकाला,छीनल रोजगार ,

                  भूख  भय अछि ,नइं कोनो महामारी

                   भय अछि ऐ कठिन तालाबंदी मे

                   न रेजकी , न गाड़ी,न कोनो सवारी

                   मोटरी-चोटरी ढोयब , कि नेना-भुटका,

                    कोना क’ जायब हम अपन गाम ?

                    यौ सरकार, सुनू हमर गोहारि,बड्ड दूर अछि हमर गाम!

                  रतौंधी अछि भेल कि मोतियाबिन्द,

                   सुझैत अछि अहाँक’ न राति न दिन

                   नीचा धरती तप्पत,ऊपर धीपल अकाश

                   देखू हमरा पयरक ओदरल छाल,

भागि रहल छी हम ,दौड़ रहल छी हम,

सुनु सरकार हमर गोहारि !बड्ड दूर अछि ..

                    कानि रहल छी भोकारि पाड़ि ,

                     कनिको सुनाइत अछि सरकार !

                    बहिर छी कि छी भेल मतसुन्न

                   अहाँ  देल धधकल अंगोर जीवन

                   मिझाउ आगि केना ,ल’ क’ कि आँखिक झहरैत बुन्न !

                                  कठकरेज अहाँ,सुनु गोहारि!बड्ड दूर अछि …

                          सोना उगलैत गामक धरती ,

                          बाढ़ि-सुखारि  सं पड़ल परती

 

                     कुव्यवस्था जारल जीवन ,जारल रोजगार

                        एत’सं ओत’ भेल सतबा सभ धरती

                        पहिने छोड़ाएल  अपन गाम जबार

                        केहन निर्दय अहाँ  यौ सरकार,

                        फेर धुरियाएल  पयरे  घुराक’ गाम ?

                         कोना क’ जाउ गाम अपन भेल विरान!दूर बड्ड अछि हमर..

                      सड़क ,महल ,बजार अहाँक महानगर  ,

                      हमही बनेलहुं अहाँक संसद ,अहाँक शहर

                       ईंटा-गारा ,बोझ उठेलहुँ दिन-राति

                       अहाँ अकाश सं खसेलहुं  खजूर पर

                     कीड़ा –मकोड़ा नइं मनुक्ख छी हम

                     मात्र  मजदूर नइं बूझू , श्रमिक छी हम

                    छीटू नइं कीड़ा मार , खून-पसीनाक दिय’ दाम!

                    यौ सरकार बड्ड दूर अछि हमर गाम …

                     पढ़लहुं खाली पेटक आगि  ,किछ नइं पढल आर

                      काल बनल करोना नइं ,रोटी-भातक कठिन जोगार

                      महामारी नइं ,काल बनल छी अहाँ महराज ,

                       अपनहि देश भेलहुँ परदेशी,कहिया बूझब मनुक्खक मान?

                       माफ़ नहीं करब , तानाशाही सक्कत यौ सरकार !

                      करी गोहारि दूर बड्ड अछि हमर गाम,

                     बड्ड दूर अछि हमर गाम !

अखिल भारतीय मिथिला संघ द्वारा 08 मार्च 2021 कें आयोजित मिथिलानी कवयित्री सम्मलेनमे प्रस्तुत कविता 

अष्टभुजी छथि ओ,अशक्त नहि,ओ अग्रगामी

ओ छथि, एक्कैसम शताब्दिक सशक्त नारी|

एक हाथ में कलम ,दोसर दौड़ैत ‘की बोर्ड’ पर ,

तेसर में मोबाइल, भरल निर्भीकता चारिम कर

पंचम में करछुल,छठम भरल प्राणवायुक आत्मबल

सातम में सम्पूर्ण गृह ,आठम में क्रांतिक बिगुल

कोर में एक गोट नान्हि टा बच्चा आ नेने लैपटॉप

घर सं बाहर, बाहर सं घर तक, श्रम-संघर्ष रत,

भरल आत्मविश्वास सं,केना ओ अशक्त छथि,किएक ओ बेचारी?

ओ छथि एक्कैसम शताब्दिक सशक्त नारी|

क सकैत छथि अपन अस्तित्व स्थापित आब

मुक्तिक  हक़ -अधिकार हुनक छीनब व्यर्थ

बुझि पितृसत्ताक कुत्सित मन्त्रणा,बनाबथि नव बाट,

चलथि निरंतर, विश्राम कौखन नहि विजय अर्थ ,

तोड़ि रहल छथि समस्त रुढिक बज्जर कारा

साहसी,सफल ,सजग, सचेत ,सम्वेद्युक्त धारा

चालू, कामकाजी आ बुरबक घरेलू के सुनि विशेषण

छनि बुझल अहाँक षड्यंत्र ,नहि करती ओ छोट मोन

भरल संकल्प सं , कत्त ओ अशक्त छथि, किएक ओ हेती मूढ़ अनाड़ी?ओ छथि……

सुनू  आह्वान,बनू कठोर ,कोमलता नहि अभिशाप बनए

बढ़ाऊ डेग, उठाऊ माथ ,चलू शीघ्र कि रस्ता साफ़ बनए

अहाँक विचार ,अहाँक विरोध ,अहाँक जीवन अछि अहाँक अधिकार

लिय सप्पत ,डेराऊ नहि , सब विघ्न -बाधाक करू उचित प्रतिकार

उड़ू नहि उड़ान भरू,सम्पूर्ण पाषाणी के मधुर श्रोत ,निर्मल धार अहाँ

गार्गी,मैत्रेयी ,सीताक अहाँ वंशजा,कनेक नहि हिम्मत हारी|

स्वयं सम्पूर्ण मनुख अहाँ ,छी अहाँ एक्कैसम शताब्दिक तेजस्विनी नारी !

अखिल भारतीय मिथिला संघ द्वारा 08 मार्च 2021 कें आयोजित मिथिलानी कवयित्री सम्मलेनमे प्रस्तुत कविता 

रिनी ,रेणु ,रीना ,राइना वा रिहाना

अहाँ चाहे जे छी,जत’ छी, जेहन छी

सुन्दर –कुरूप ,श्यामल वा गौरवर्ण,

लम्बा- छोट,एक छटांक बेसी कि कम

अर्थ नइं छै कोनो शारीरिक आकारक

हे सुन्दरी ,मानि जाउ,सर्वोपरि छै आत्मिक दम|

प्रथम वयःसंधि ,छी अहाँ फुलाएल मुग्ध बनफूल

वन पवन संग झुमैत ,बहैत,गमकैत मनोनुकूल ,

न बिकाउ बजारक हाथ ,नइं करु एहन अपघात

भ’ स्वयं आत्ममुग्ध, चिर विकसित वृत्ति मूल |

शरीरक काट-छांट,छी आत्माक अविकल काट- छांट

वस्तु बना बेच रहल अछि अहाँ कें बजारक हाट

फंसल छी जाल मे स्वयं भ’ दिग्भ्रमित अहाँ;

क्रूर बजार लोभवश चुम्बक बनि घीचि रहल

दुर्भाग्य ,भागि रहल छी अदृश्य सुखक पाछां

हे सुन्दरी,दासी बनि संवेगक, बेर-बेर छी छलित अहाँ !

मेटा सत्य स्मृति सं, कएल जा रहल निष्प्राण अहाँ,

बजारक अहाँ साधन छी ,देखू अपन छद्म दुरवस्था ,

एक-एक सीढ़ी ओ चढ़ल,पिछड़ल जा रहल स्त्रीक गरिमा  ,

स्त्रीदेहक विमर्श सं समृद्ध अछि बजार व्यवस्था

हे सुन्दरी,देहक त’ एकेटा विमर्श छै रोग,मृत्यु ,वृद्धावस्था !

ग्राम सुन्दरी , नगर सुंदरी ,देश सुंदरी ,विश्व सुंदरी कहि

छलिया घातक नशाक अभ्यस्त बना, रहल  भागि,

गहींर अंतरदृष्टि सं बुझू ,बजार भावक ई चलाकी |

हे ,सुंदरी;! चौन्हियाएल जयघोषक परिधि सं निकलि

देखियौ ,जादुई शीशा में रुपसौन्दर्यक  विकृतावस्था |

ओह ‘रूप-रूप’क आवरण ,देखा स्वर्ण-मृगक चमक

आन्हर क’, हरण क’ रहल अछि सुबुद्धि कनक ;

बिठुआ काटि हे सुन्दरी ,हँस’ कें नइं कियो अधिकारी

स्वयं छी चमड़ीक स्वामिनी अपन, गोर होउ वा कारी |

हे सुन्दरी, बिठुआ काटि, हँस’ कें नइं कियो अधिकारी

(चित्र: डॉ सुनीता) 

सर्वविदित छै कि दुर्योधनक सभा में सब आन्हर रहै

चमकैत नृशंस राजसभा  आन्हर रहै पूर्णत:

कियो तन स, कियो मन सं

कियो कर्म सं,कियो भ्रम सं

कियो विवेक स कियो प्रण सं

नग्नता देखक निर्घृण उत्तेजक अट्टहास-बल

आन्हर नइं सभा कें बधिरो  क’ देने छल |

धृतराष्ट्रक अंधत्व और गंभीर भ’ गेलनि

जहन ओ भ्रातापुत्र लेल इर्ष्यादग्ध भ’ गेला

इर्ष्याक प्रचंड लपट आँखिक रोशनिए  नइं

आत्मा तक क’ दग्ध द्वेषान्ध क’ देलकनि |

दुर्योधन मनक पतालपुरी सं आयल सर्वनाशी क्रोध-

अहंकार क विकराल दानव सं अन्धाच्छादित भ’ गेल

युधिष्ठिरक सत्य,सत्य जे शिवमक रूप होइत छैक ,

स्त्री क’ दाँव पर लगा मिथ्याक अंधकार में डूबि गेल |

देखलक इतिहास, अविवेकी सत्ताक प्रति निष्ठाक व्यर्थता

सभा सहित पितामह प्रण सं आँखि बला आन्हर छला

बुझ’ परतनि सत्ता नइं, हितक रक्षा में छै प्रणक सार्थकता

पितामह कें ई अंध-पक्ष–समर्थन देतनि सतत  शरशैया |

अनीतिक युद्ध होइत रहत नित्य विश्व में यदि अखनहुँ

गांधारी खोलि अंध-पट्टी, नइं करती पति-पुत्र’क चरित्र निर्माण,

महाभारत त’ अवश्यम्भावी छैक अंध राज में ,नग्न द्रोपदी

हेती लज्जित प्रतिदिन अंधसभा ,अंधपथ,अंधवीथी  सुनसान |

ओह कि एकटा धुइरिए कण होइतहुँ

जे पिचैत पएर तर, हवा में उड़िया

बैसतहुं ओकरे माथ पर, कम स कम

मीड़ल त  नहि जैतहुं|

कोमल  फूल नहीं नोकीला कांटे होइतहुँ

कियो तोड़ैत नहि ,मचोरैत नहि,छुबैत

से उनटे अपने  भ जाइत लहुलोहान ,

हम त  नहि होइतहुँ |

कि पुनमक चन्द्रमे होइतहुँ चमकैत

इंजोरिया क’ नजरि लगबैत कियो

घटैत बिला जैतहुं अन्हरिया में ,

दागक स्याही सं बचि जैतहुं |

जौहर करैत सम्राज्ञी नहि, होइतहुँ आगि चिताक

धधकैत, छुबिते  जरि मरैत , जे करैत मान भंग

ज्वाजल्यमान  धधरा छू सकैत की अत्याचारी ?

आगि बनि  मानरक्षा सं शीतल होइतहुँ |

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