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रोगिणी

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आदरणीय लिली रे मैथिली साहित्यक नारी लेखनमे अग्रिम पाँतिक लेखिका छथि। आइ हुनक देहांतक दुखद समाचार प्राप्त भेल अछि।  हुनक पहिल कथा ‘रोगिणी’ 1955 ई मे वैदेही पत्रिकाक जुलाइ अंकमे प्रकाशित भेल अछि। ओ कथा आइ मिथिलानीक पाठक लोकनिक लेल प्रस्तुत कएल जा रहल अछि।
‘‘सुनै छी, तखन हम जा रहल छी।’’
‘‘हँ, जाउ।’’
‘‘पूरे पूर पचीस टाका हाथ लागत।’’ हम हुनका कान लग जा केँ नहुँए सँ बजलहुँ।
‘‘बिना कोनो काजक?’’ ओ बिहुँसलीह।
‘‘ च…च…च..।’’ हम हुनका मुहपर हाथ धरैत बजलहुँ, ‘‘राजरोगक इलाज करै छी।’’ गृहणी खूब जोरसँ हँसलीह। हमरो हँसी लागि गेल।
‘‘डाक्टर बाबू!’’ बाहरसँ एक अपरिचित स्वर आएल।
‘‘की थिक?’’ हम कोठलीसँ बहराइत पुछलिअइक। एक दस वर्षक बालक उज्जर कमीज पहिरने छल, जे ठेहुन तक झुलैत रहैक। पएरमे एक जोड़ पुरान चट्टी ओकर आर्थिक दशाक पूर्ण परिचय दऽ रहल छल। ओकर रंग पिंडश्याम रहैक, खर-खर चाम, चिक्कनताक कतहु दरश नहि। ओकर आँखि डबडबाएल आर स्वर भारी रहैक।
‘‘हमर बहिनि दुखित छथि।’’ ओ बाजल।
‘‘मुदा हम तँ बाहर जा रहल छी।’’
‘‘मुदा हमर बहिनिकेँ आखिरी हालति छैक।’’
‘‘तँ कोनो दोसर डाक्टरक कतय कियैक नहि जाइ छी? हम तँ पहिनहि दोसर केस गछि चुकल छी।’’
‘‘डाक्टर बाबू अहाँ मैथिल छी ने?’’
हमर मोन कबदि गेल। फीससँ उद्धार पएबा लेल ई लोकनि चट दऽ ‘मैथिल छी’क अस्त्र प्रहार कऽ दैत छथि। हम कइएक बेर ठका चुकलहुँ। फेर डाक्टरक जीविका तँ फीसहि पर निर्भर करैछ। अतः दृढ़ स्वरमे बजलहुँ, ‘‘मैथिल छी, अथवा बंगाली चाहे उड़िया छी, तै सँ अहाँक कोन लाभ? हमर पेशा थिक डाक्टरी।’’
ओ चुपचाप ठाढ़ रहल। हम फेर बजलहुँ, ‘‘अहीठाम बहुत डाक्टर रहै छथि, हुनकालोकनिक ओतय गेलासँ प्रायः फीसहु कम लागत।’’
 ‘‘मुदा बहिनि जे अहीं केँ बजाबय कहलक अछि?’’
‘‘मुदा हम की कऽ सकैत छी?’’
‘‘डाक्टर बाबू अहाँ की सोचैत छी, जे हम फीस नहि देब?’’
मोनक दुर्बलता पकड़ा गेलापर हमर क्रोध बढ़ि गेल। चिचिआ केँ कहलिऐक, ‘‘अहाँ हमरा बुझै छी की? हम अपन रोगीसँ वचनबद्ध भऽ चुकल छी। जाउ! व्यर्थ हमर समय नष्ट नहि करू।’’ कहि हम आगू बढ़ि गेलहुँ।
ओ लपकि केँ हमर दूनू पैर पकड़ि लेलक।
‘‘डाक्टर बाबू! हमरा क्षमा करू। हमर बहिनि मृत्यु शय्यापर पड़ल छथि। आ हुनक इच्छा छन्हि, आखरी इच्छा जे अहीं हुनका देखिअन्हि। डाक्टर बाबू अहाँकेँ एक्के बेर, मुदा जाए पड़त। हमरापर दया करू डाक्टर बाबू! हमहूँ मैथिले छी।’’
ओ हकन्न कऽ केँ कानय लागल। हम भारी दुविधामे पड़ि गेलहुँ।
ओकर रुदन सुनि केँ हमर गृहिणी आबि गेलीह।
‘‘एतेक कहैत अछि तँ चल ने जाउ।’’ पत्नीक स्वर सेहो गह्वरित छलैन्ह।
हम – ‘‘मुदा राय बहादुरक बेटा जे दुखित छथिन्ह?’’
‘‘हुनका कतय जाएब शतरंज खेलाइ लेल, आर एकरा ओतय यथार्थमे दुःखित छैक।’’
‘‘एकर माने की?’’ हमर जरल हृदयपर नोनक वर्षा हुअऽ लागल।
‘‘माने किछु नहि। अहाँ अपने कहलहुँ अछि हुनका किछु होइ-तोइ नहि छन्हि। फुसिए पेट-दर्दक बहाना कऽ केँ कालेज नहि जाइ छथि आ शतरंज खेलाइ छथि।’’
हम दाँत किटकिटबैत बजलहुँ, ‘‘अहाँ भितरी जायब की नहि?’’
‘‘हम चलि जायब, मुदा अहाँ पहिने ई गरीबकेँ देखि अबिअउ।’’ हुनकर स्वरमे याचना रहन्हि।
‘‘बऽड़नी! कहिओ जँ हमरा कहलहुँ अछि जे हमरा साड़ी चाही, ब्लाउज चाही, सिनेमा जा…।’’ बजैत-बजैत हम चुप्प भऽ गेलहुँ। रामाक आँखिसँ झर-झर नोर बहैत रहनि।
‘‘अहाँ कनैत कियैक छी?’’ ओ तइओ कनैत रहली। हम सभ किछु सहि सकै छी, मुदा पत्नीक कानब नहि। हम विचलित भऽ गेलहुँ।
‘‘अहाँ चाहै छी जे हम पहिने एकरे ओतय जाइ?’’
किछु उत्तर नहि। हमर पाथर मोन मोम जकाँ पघिल गेल। हुनक आँखि पोछैत बजलहुँ, ‘‘रामा, अहाँकेँ हमरे शपथ। कानूऽ जुनि। हम जाइ छी, एकरा संगे।’’
आर रामाक मुखारबिन्दुपर प्रसन्नताक आभास नुका-चोरी करय लगलन्हि। हम कृतकृत्य भऽ गेलहुँ।
रोगिणीक अवस्था सत्ते शोचनीय रहैक। हमरा देखितहिं बाजलि, ‘‘आबि गेलौं अहाँ? हमरा विश्वास छल जे अहाँ अवश्य आयब।’’
हम गम्भीर भावसँ ओकर पूर्णतया निरीक्षण करैमे संलग्न भऽ गेलौं। ओ बाइक जोरपर बड़बड़ा रहल छलि, ‘‘हम अहाँक नाम हँसाइ नहि देखि सकितहुँ तेँ गंगाकातमे नुआ राखि विदा भऽ गेलौं। सब बुझलक जे हम डूबि गेलौं। मुदा, एतेक साहस हमरामे नहि छल। हम एतय राय बहादुरक माइक ओतय नौकरी कऽ केँ भोलाकेँ एखन तक पोसि सकलिअइक अछि। मुदा, आब एकरा के देखतैक? ओहि दिन राय बहादुरक ओतय अहाँक दर्शन भेल। हम तँ लगले चिन्हि गेलौं। आब अहाँ भोलाकेँ देखबैक!’’
‘‘मुदा भोला….?’’
भोला, जे हमरा अनने रहय, ओत्तहि सिरमा लग ठाढ़ छल। ओकरा दिस ताकि रोगिणी फेर बाजलि, ‘‘भोला! भोला तों बाहर जा, आ केबाड़ बन्द कऽ दहक।’’ आर भोला चुपचाप चल गेल। ओ तखनहु कानि रहल छली।
हम अपन सिरिंजमे औषध भरैत छलहुँ। मुदा, एहिसँ लाभक कोनो सम्भावना नहि छल, तैओ अन्तिम चेष्टा।
‘‘मुदा भोलाकेँ नहि जानल छलैक जे ओ हमरालोकनिक सन्तान थिक।’’
‘‘की?’’ हम अपन हाथसँ खसैत सिरिंजकेँ सम्हारलहुँ।
‘‘नहि, तखन ओ हमरासँ घृणा करिते। हमरा खातिर ओकरा नहि कहबै जे ओकर ‘माए-बाप’ हम-अहाँ छियैक।’’
‘‘दाइ! अहाँ की बजै छी?’’ पहिले बेर हम मुह खोललहुँ।
‘‘हम?’’ ओ आश्चर्यसँ हमरा दिस तकैत बजली।
 ‘‘हम की बजै छी? अहाँ हमरा चिन्हलौं नै? मुदा अहाँ तँ कहने रही जे अहाँ हमरा बिसरि नहि सकै छी?’’
‘‘होशमे नै छथि?’’ हम अपनेमे बड़बड़ेलौं, मुदा ओ सुनि गेली।
अपन समस्त शक्ति लगा केँ बजलीह, ‘‘हऽमरे….ए…नू….ओझा ओतय अहाँक मामा…।’’
मुदा ओकर बोली लागय लगलैक। ओ निःचेष्ट भऽ आँखि मुनि लेलक।
हमर आँखिक आगाँ अन्धकार भए गेल। क्रमशः ओ अन्धकार दूर भऽ गेल आ ओहिमेसँ प्रकट भेल मामाक मकान। हम मेडिकल काॅलेजमे पढ़ैत रही। ओहि समयमे मामाक ओतय केओ आन रहैत छल। के? एक मूर्ति फेर प्रकट भेल। विधवा तरुणीक। गौर वर्ण, कोसासँ चीरल आँखि, गोल नाक आर पातर गुलाबी ठोर। सब मिला केँ एक अद्भुत आकर्षण शक्ति रहै ओइमे जे हमरा अनायासे घींचि लेलक अपनामे।
रोगिणीक मुह देखलियै – श्याम, रेनूक रंगसँ कोनो समानता नहि रहै। गाल पचकि केँ एक दोसरामे सटबा-सटबापर। आँखि एक आङुर तऽर दिस, ओकर नीचामे कारी दाग। अः नहि, रेनूसँ कोनो समानता नहि छलैक। रोगिणी अपन आँखि खोललक। हँ! वैह चिर परिचित ताकब। वैह थिकीह, वैह, कोनो सन्देह नहि।
‘रेनू?’’ हमरा मुहसँ बहरायल।
‘‘अहाँ हमरा चिन्हलौं?’’
ओकर अधरपर एक क्षीण मुस्कान दौड़ि गेलै। वैह चिर परिचत मुस्कान जे हमरा संसारसँ पृथक कऽ केँ अपनामे समेटि लैत रहै। मुदा, आइ अपन मुस्कानक भार ओ स्वयं नहि सहि सकलि। ओकर ठोर बिचकि गेलै। ओ अपन आँखि बन्द कऽ लेलक, सब दिनक लेल…..।

सामान्यत: बूझल जाइत छै जे महिला सभ मे राजनीतिक चेतना कत’? हुनका सभ के राजनीति स’ की मतलब? बेसी स’ बेसी वोट खसाब’ चलि जेतीह, सेहो घरक लोक सभक निदेशानुसार। राजनीति मे जौं जेतीह त’ पुरुष आधिपत्यक नीचां बनल रहतीह। अपन फैसला लेबाक अधिकार स’ वंचित। ईहो मानि लेल जाइत छै जे महिला सभ मे सामाजिक चेतनाक अभाव छै। बल्कि हुनका सभ के ई समझाओल- बुझाओल जाइत छै जे समाज मे जे सभ घटि रहल अछि, तकरा सभ स’ हुनका आओरक की मतलब? ओ सभ त’ बस तौला- तौला भात उसीनथु, घर भरक सेवा करथु, बाल- बच्चा सभ के पोसथु, घर लेल सदा समर्पित रहथु। बाहर आगि लागय, ठनका ठनकय- हुनका आओर लेखे धन सन! वाणिज्यिक या आर्थिक पहलू सभ पर त’ हुनका सभ मे आगि आ पानिक संबंध। घर- खर्ची ले जे भेंटि जाए, सएह हुनक दुनिया! ओकरा मे स’ जे खा- बचा ली। कोनो सरकारी नियम आबि जाए त’ तुरंत चोरनी सन पदवी स’ सेहो विभूषित!

मानि लेल जाइत छै जे खूब पढ़ल- लिखल महिलेटा लिखबा- पढ़बाक काज क’ सकै छथि। ईहो मानल जाइत छै जे महिला सभ मे वैश्विक सोच कत’? लिखतीह त’ व्रत- पाबनि अथवा ओकर महामात्य पर। बेसी बढतीह त’ घरक गुण- गाथा अथवा जनी- मजूरनी सभक कथा लिख सकै छथि। महिला आ बोल्ड विषय! छिया- छिया! स्त्री भ’ क’ एहेन लेखन? जी। हमरा लेल कहल गेल छल, जहन हम कथा लिखने छलहुं- ‘आऊ कनेक प्रेम करी माने बुझौअल जिनगीक’। माने अहां स्त्री स’ प्रेम करी त, बड्ड नीक! हम प्रेमक अभिव्यक्ति पर लिखी त’ अनर्थ!

त’ ई सोच ओहि मैथिल समाजक छै, जाहि समाज मे मल्लिनाथा भ’ गेलीह। जाहि समाज मे शस्त्र- शास्त्र और गृह- कार्यक ज्ञान स’ सुसज्जित सीता भ’ गेलीह। जाहि समाज मे भारती मिश्र सन विदुषी भेलीह, जे सेक्स सनक विषय पर आदिगुरु शंकराचार्य स’ शास्त्रार्थ केलीह। जाहि समाज में मैत्रेयी, गार्गी, भामती सन महिला भ’ गेलीह। ओहि समाजक आजुक आश्चर्यजनक जड़ता हुनकरे अहि ढोल पीटब के नकारै छै जे हमर मैथिल समाज के अपना  अतीत पर गर्व छै।

मुदा, हमरा सभ के गर्व स’ तनि के ठाढ हेबाक अवसर दैत आ समाज मे पसरल सभटा पाखंड के ध्वस्त करैत अपन लेखन स’ चहुं दिस सभ के चकभौंर करैत छथि, प्रगतिशीलताक ज्वलंत अहर्निश टेमी बनि क’ लिली रे। लिली रे आश्चर्यजनक तरीका स’ अजुका जड़ मैथिल समाजक सभटा मिथक के धांगैत आ भांगैत छथि आ सेहो मैथिली मे लिखि क’। अपन व्यापक अनुभव संसार स’ ओ समाजक खोहि- दोगी मे जा- जा क’ विष्य आनलन्हि आ लिखलन्हि। हमरा ई कहबा मे कनिको संकोच नहिं अछि जे लिली रे अपन लेखनी मे कम स’ कम सय वर्ष आगां छथि।

सहज व्यक्तित्व

लिली रे बहुत मृदुल, सौम्य आ आकर्षक छथि। हुनकर एक गोट भगिना श्रीरमण झा कहै छथि- ‘लिली मामी के जाहि स्वरूप मे हम देखल, ओहेन स्वरूप ओहि समय मे अत्यंत दुर्लभ छल, कियैक त’ लिली मामी अत्यंत समृद्ध आ शिक्षित परिवार स’ आएल छलीह। हुनक व्यवहारक खुलापन, उदारता, प्यार आ सभ पर समान रूप से ध्यान राखब, दुर्लभ छल। मात्र हमरे लेल नहीं, अपितु सभ लेल, छोट- पैघ, जरूरतमन्द कि आन किओ। हमरा लेल त’ हुनका जानब, देखब हुनका से बतियाएब- सभ किछु जेना स्वप्न मे देखल आ यथार्थ मे भेटल दुर्लभ खजाना सन छल। एक गोट हंसमुख, प्यार करयवाली आ सदिखन सभक लेल अपस्यांत रहयवाली एक गोट मैथिल स्त्री- हमर लिली मामी!’

वरिष्ठ पत्रकार मदन झा लिखै छथि- ‘लगभग तीस साल पहिने हम एक पारिवारिक समारोह में आयल रही। मिथिला समाजक दिल्ली में रहनिहार बहुत लोक सभ स’ मेल- जोल में व्यस्त रही। एक कार्यक्रम मे हमर ध्यान एक़ टा प्रभावशाली आ भव्य महिला दिस गेल, ज़े अपना से बुज़ुर्ग लोक सबहक संग बैसल छलीह। सभ किओ हुनके स’ मुख़ातिब छलन्हि। हुनक परिधान ओहि समयक हिसाब से बहुत एडवान्स लागि रहल छलै। इंटर्नेटक ज़माना नहिं छल। ताही हेतु जेनरली फ़ोटो देखबाक अपेक्षाकृत कम मौक़ा होइत छलै।

ख़ैर! ओहि बुज़ुर्गक मण्डली लग जेबाक साहस कएल। हर्ष भेल जे हम मैथिलीक सुप्रसिद्ध साहित्यकार लिली रेक सामने छी। हुनका प्रणाम करबाक आ अपन परिचय देबाक प्रयास कएल। ओहि समय में आदरणीय हरिमोहन झा, यात्री जी आ सुमन जीक़ संग एकमात्र महिला मैथिली साहित्यकारक नाम, जिनका स’ नीक जकां परिचित छलहुं त’ ओ छलीह लिली रे। …. ओ सभ स’ प्रोग्रेसिव साहित्यकार छलीह आ हुनक रचना ‘मरीचिका’ सभ से पॉप्युलर उपन्यास अछि, जेकरा नॉन- लिटरेचरबला लोक सभ सेहो पढ़ने हेताह।‘

इहो पढ़ू: चिर स्मरणीय रहत लिली रे जीक कीर्ति

फिल्म मेकर आ हुनक भगिना ब्रह्मानंद सिंह लगभग बीस बर्ष पहिने हमरा फोन केने छलाह- ‘अहां लिली रे के जनै छियै?’

हमरा अपन आश्चर्य भेल- ‘हम हुनकर ट्रांसलेटर छी। मुदा अहां हुनका कोना जनै छियै?’

‘ओ हमर मामी छथि। हुनका स’ भेंट भेला पर हमरा स’ पूछलन्हि जे अहां त’ मुंबई मे रहै छी। अहां विभा रानी के जानै छियै? ओ हमर किताब सभक अनुवाद क’ रहल छथि।‘

ब्रह्मानंद सिंह कहलन्हि- ‘लिली मामीक पूरा पर्सनैलिटी एकदम अलग छलन्हि। एतेक तेज आ गरिमा हुनका चेहरा पर रहैत छलै जकर वर्णन नहिं कएल जा सकैये।‘

लिली रे केर साहित्यिक कैनवास

एहेन लिली रे स’ साधारण रचनाक अपेक्षा नहिं कएल जा सकै छलै आ ओ केबो नहिं केलीह। एक दिसि ओ ‘उपसंहार’ सनक उपन्यास लिखै छथि। स्त्री आ कन्या मोनक कोमल तंतु प्रेमक निरीहता आ ओकरा स’ भेंटल दंड पर त’ दोसर दिस ‘पटाक्षेप’ लिखै छथि- घनघोर नक्सल आंदोलनक खोह मे जा क’।

डॉ. बिभा कुमारी लिली रेक उपन्यास ‘उपसंहार’ पर लिखै छथि- ‘लिली रेक उपन्यास ‘उपसंहार’ स्त्री- पुरुष विभेद, लैंगिक असमानता, समाज में स्त्री आओर पुरुष लेल निर्धारित अलग- अलग मानदंड पर प्रश्न ठाढ़ करैत अछि। …. समाजक व्यवस्था एतेक दुरंगा किएक अछि? पुरुषक दोष कें नहि देखल जायत अछि आ स्त्रीक दोषकें भरि जिनगी लेल कारिख बना क’ ओकर मुँह पर औंस देल जायत अछि। पुरुषक दोष सेहो स्त्रीक माथ पर ध देल जायत अछि।‘

‘पटाक्षेप’ पर समाजशास्त्री डॉ. कैलाश कुमार मिश्र लिखै छथि- ‘ई उपन्यास कतौ यथार्थक समाज वैज्ञानिक विश्लेषण आ एथनोग्राफिक परिचय प्रशस्त करबमे पाछा नहि रहल अछि।‘

हमरा एखनो लागैये जे की तहिया मैथिली मे चारू मजुमदार, कानू सान्याल सभक चर्च होइत छलै? मार्क्स आ लेनिनक नाम पर विचार-विमर्श होइत छलै? ‘पटाक्षेप’ मे अहां के ई सभ टा जानकारी भेंटत। डॉ. कैलाश कुमार मिश्र ‘पटाक्षेप’ स’ कोट करै छथि- “सभ जानय चाहैत छल चारू मजुमदार, कानू सान्याल आ जंगली संतालक विषय मे। नक्सलबाड़ी किशनगंजसँ दूर नहि छल। किशनगंज पूर्णियासँ दूर नहि छल। एक गामसँ दोसर गाम, दोसरसँ तेसर, समस्त अंचलमे नक्सलबाड़ीक गप्प उड़िया रहल छल। मार्क्स आ लेनिनक नाम प्रत्येक गामक युवावर्ग सुनि चुकल छल। क्रान्तिक महँ स्वप्नकेँ पूर्ण करबा ले सभक मोन आलोड़ित भऽ रहल छलैक। बुढ़बा सभकेँ बुझबामे नहि अबे, मुदा सुनबामे नीक लगै। ओसभ किछु नहि बाजय, मुदा ओकर मूक आँखिमे हँसी डबडबा गेलै, जेना दिलीपकेँ कहैत होइनि, “बाबू हमहूँ कम नहि देखने छी। कहब सहज छै, करब नहि।”

समीक्षक अरबिंद दास लिखै छथि- ‘वर्ष 1960 के दशक में उनका लेखन मंद रहा, लेकिन फिर ‘पटाक्षेप’ (मिथिला मिहिर पत्रिका में धारावाहिक प्रकाशन) से लेखन ने जोर पकड़ा। मेरी जानकारी में नक्सलबाड़ी आंदोलन को केंद्र में रखकर मैथिली में शायद ही कोई और उपन्यास लिखा गया है। बांग्ला की चर्चित रचनाकार महाश्वेता देवी ने भी ‘हजार चौरासी की मां’ उपन्यास लिखा, बाद में इसको आधार बनाकर इसी नाम से गोविंद निहलानी ने फिल्म भी बनायी। ‘पटाक्षेप’ में बिहार के पूर्णिया इलाके में दिलीप, अनिल, सुजीत जैसे पात्रों की मौजूदगी, संघर्ष और सशस्त्र क्रांति के लिए किसानों- मजदूरों को तैयार करने की कार्रवाई पढ़ने पर यह समझना मुश्किल नहीं होता कि यह रबिंद्र रे और उनके साथियों की कहानी है। रबिंद्र लिली रे के पुत्र थे, जिनका वर्ष 2019 में निधन हो गया। अपनी आत्मकथा में भी लिली रे नक्सलबाड़ी आंदोलन में पुत्र रबिंद्र रे (लल्लू) के भाग लेने का जिक्र करती हैं कि किस तरह लल्लू हताश होकर आंदोलन से लौट आए और फिर अकादमिक दुनिया से जुड़े।’

अपन निजी जीवन में लिली रे बहुत भ्रमण केलीह। श्रीरमण झा लिखै छथि- एक बेर हमर पोटिंग कलकत्ता मे भेल छल। हम ओहि ठाँ दुखित भ’ क’ कलकता के बेलिव्यू अस्पताल में भर्ती रही। अस्पताल में सभ स’ पहिने पहुंचयवाला जे व्यक्ति छल, ओ छलीह लिली मामी- भरि- भरि झोरा फल- फलहरी आ फूल सभ ल’ क’। कह’ लेल लोक आओर कहि सकैत छथि जे ई कोन बड़का बात! मुदा, अस्पतालक बेड पर पड़ल एक गोट बेराम व्यक्ति लेल ई अत्यंत जीवनदाई। लिली मामीक भव्यता आ महानता पर बहुत किछु लिखल जा सकैए। एक गोट चुम्बकीय आकर्षण छै हुनक सम्पूर्ण व्यक्तित्व में।‘

यथार्थ लिखनिहारि  लेखिका

लिली रे जत’- जत’ रहलीह, ओतुक्का जिंदगी लिखैत रहलीह आ एवंप्रकारे मैथिली के बहुविध अनुभव संसार स’ समृद्ध करैत रहलीह। हुनक छोट- छोट वाक्य, बिहारीक दोहा जकां छै- ‘देखन में छोटन लगे घाव करे गंभीर’। श्रीधरम लिखै छथि- ‘कथा- साहित्य ओ विधा थिक जे साहित्य मे तथाकथित धीरोदात्त नायक कें पदच्युत क’ हाशियाक शोषित पीड़ित स्त्री- दलित- किसान- मजदूर आदि पात्र कें साहित्यक केंद्र मे स्थापित क’ देलक। तकर प्रमाण लिली रेक कथा- साहित्य सेहो थिक।‘

अपन पहिल कथा ‘रोगिणी’ये स’ लिली रे कहि देलखिन्ह जे ‘यौ मैथिल सभ- उठू कि भोर होबय छै।‘ श्रीधरम लिखै छथि- ‘ई (रोगिणी) कथा मिथिलाक बिधवा जीवनक शोकगीत सन अछि। पुरुष द्वारा एकटा स्त्री आकि विधवाक दैहिक-मानसिक शोषणक जे मैथिल परंपरा रहल अछि तकरा अभिव्यक्त कर’ मे पूर्णतः सफल अछि ई कथा। लिली रे अपन पहिले कथा मे जाहि धमक संग उपस्थित होइत छथि, से अहि कहावत कें दुरुस्त करैत अछि जे अवसर भेटै त’ पूते नहि पुत्रीक पएर सेहो पालना मे देखल जा सकैत छै।‘

मोपासां आ चेखव सं छलीह प्रेरित

लिली रेक रचना सभक अंत अत्यंत अप्रत्याशित होइत छै- मोपासां वा चेखवक कथा सभ सनक। हुनका स’ अहि बाबत पूछला पर ओ बहुत सहजता स’ हमरा स’ कहने छलीह- ‘मोपासांचेखव हमर बहुत प्रिय रचनाकार छथि। हम हुनका बहुत पढै छी। तैं, यदि हुनका आओरक लेखन शैली हमर लिखब मे आबि गेल अछि त’ ई कोनो हैरानीक गप्प नहिं। भ’ सकै छै। एना होबैत रहैत छै। प्रेरणा आ सीख त’ कतहु स’ लेल जा सकैये।’

मुस्काइत ओ हमरा कहलीह- ‘आइ धरि मुदा किओ अहि मादे हमरा स’ किछु कहल वा पूछल नहिं। पहिल बेर अहां स’ सुनल। तैं आब हमहूं एक बेर सोच मे पडि गेलहुं। मुदा अहां के ई कोना लागल?’ हम विनत एतेब कहल जे ‘चेखव आ मोपासां हमरो बहुत प्रिय लेखक छथि।’

सरल, सहज, प्रवाहमयी भाषा आ गूढ भाव संगे वर्णित रचना सभक कएक टा लेयरक अर्थ आ बोध सृजित भ’ सकै छै, ई जान’ आ बूझ’ लेल लिली रे के पढ़ब अनिवार्य छै। मैथिली मे पढू, हिंदी मे पढू, मुदा पढू अवश्य। हमरा द्वारा मैथिली से हिन्दी में अनूदित एखनि धरि आठ टा किताब छै- ‘पटाक्षेप’ (भारतीय ज्ञानपीठ), ‘जिजीविषा’ (रेमाधव पब्लिकेशन्स), ‘बिल टेलर की डायरी’, ‘संबंध’ (वाणी प्रकाशन) ‘विशाखन व अबूझ’ तथा ‘प्रवास चयन व उपसंहार’ आ नाटक ‘गांधारी’ आ ‘द्वंद्व’।

त’ एहेन लिली रे स’ आम रचनाक अपेक्षा त’ कएले नहिं जा सकै छै। ‘उपसंहार’ में ओ प्रेम पर लिखै छथि त’ ‘जिजीविषा’ मे मिल आ मजदूर पर। मजदूर यूनियन, राजनीति, मजदूरक स्थिति- अहि सभक बहुत महीन चित्रण अहि मे भेंटै छै।

सत्य लिखबाक साहस

लिली रे तथाकथित बोल्ड रचनाक रूप मे ‘रोगिणी’, ‘रंगीन परदा’, ‘बिहाडि एबा स’ पहिनही’ लिखै छथि, कियैक त’ प्रेम अपना ओहिठां सदिखन स’ वर्जित विषय रहल अछि। मुदा, ई सभ स्थिति समाज मे मौजूद छै। लिली रे मात्र ओकरा उघार क’ देलखिन्ह। तैं एकरा आब बोल्ड कथा स’ इतर समाजक पर्दाफाश करैत रचना सभ कहबाक चाही। अही क्रम मे ‘अबूझ’ उपन्यास छै- प्रवासी मजदूरक जीवनक विभिन्न घटना स लदबद होइत प्रवासी मजूर स्त्रीक त्रासदी, ओकर इच्छा, आकांक्षाक मद्धिम बोरसी पर सुनगैत कथा।

श्रीरमण झा लिखै छथि- ‘ई सत्य छै जे ओहि समय मे मैथिल परिवार में, विशेषत: स्त्रीगण सामाजिक मान्यताक कारणे अत्यधिक दबाव मे जिबैत छलीह। एखनो स्थिति कोनो बहुत नहि बदललइए। एकरा पर त’ जतेक लिखल जाए, कम छै, कियैकक त’ जा धरि हम सभ अपना के नहि बदलबै, कोनो बदलाव संभव नहि छै।‘

इहो पढ़ू : लिली रे केर पहिल कथा ‘रोगिणी’

‘मुदा लिली मामी एकर ठीक उलटा छलीह। हमरा ओहि समय मे आश्चर्यक ठेकान नहीं रहल, जहन हम हुनका शर्ट आ पैंट, जकरा ओहि समय मे स्लैक्स कहल जाइत छलै, ओहि मे हुनका देखल। घुड़सवारी करयवाली लिली मामी। जेना, कोनो सिनेमा के पर्दा से उतरि के हमरा सोझा मे ठाढ़ भ’ गेली। हम बेगम अख्तर लेल सुनने छलहूँ जे ओ घुड़सवारी करैत छलीह। एम्हर हम लिली मामी के देखल। अपन मिथिला मे सेहो एहेन स्त्री! हम गर्व स’ भरि उठल। हम अपना जनितब एकर उमेद किन्नहु नहीं केने छलहूँ। ई फराक गप्प, जे हमरा ई पहिने से कहल गेल छल जे ओ कनेक ‘डिफरेंट’ छथिन्ह, तइयो।‘

अहि ‘डिफरेंट’ मैथिलीक चेखव आ मोपासां के हमर नमन! ###

जाहि दिन स्त्रीकेॅं ओकर स्वयंकेर नामसॅं चीन्हब आ स्वीकारब सहज क्रम बनि जायत,ओकर परिचय लेल पिता, पति, पुत्र किंवा आन सम्बन्धीक उपसर्ग आवश्यक नहिॅं रहत, ताधरि ओकर herself प्रश्नांकित रहत आ ओ प्रत्यय जकाॅं संयुक्त होइतो, परिवार आओर समाजक अर्थवत्ताक विस्तारक हेतु होइतो संपूर्ण शब्द नहिॅं बनि, शब्दांश मात्र रहतीह।

लिली रे के प्रखर व्यक्तित्वक साक्षी आ प्रशंसक समग्र मिथिला अछि। किन्तु हुनकहु परिचयमे वरीय अधिकारी भीमनाथ मिश्रक पुत्री हयबाक आ प्रतिष्ठित परिवारक कुलवधू हयबाक उपसर्ग रहरहाॅं जोड़ल जाइत रहल। तथापि, लिली रे अपन व्यक्तित्वक आ कृतित्वक बलेॅं फराक परिचिति बनौलनि आ मनबौलनि ,ई हुनक विशिष्ट  उपलब्धि रहल।

आइ जाहि स्त्रीक सामाजिक-आर्थिक- राजनीतिक समानताक आवश्यकता राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय  स्तरपर स्वीकारल जाइत अछि,ओहि  लेल आवाज उठयबाक जरूरति आइयो अनुभव कएल जाइत अछि,ओहि स्वतंत्रताकेॅं सहजतया बाल्यकाल सॅं उपभोग करइत, यावज्जीवन अपना हिसाबेॅं   निर्बन्ध जीवन जिबैत आ अपन साहित्यहुमे ओहि स्वतंत्रताक ओकालति आक्रामक नहिॅं अपितु सहजरूपेॅं करैत लिली रे बहुआयामी व्यक्तित्वक स्वामिनी छलीह।

दिव्य गौर मुखमंडल, गरिमामय कान्ति, लक्ष्मी,सरस्वती आ शक्तिक(पद-प्रतिष्ठा) कृपासॅं आप्लावित लिली रे केर कुण्ठारहित जीवन ऊपरसॅं  जतेक समतल बुझाइत छनि, ओतेक समतल वस्तुत: रहलनि नहिॅं जे अपन लेखनक हेतु बतबैत अपन शोधच्छात्रा  शिष्या ममता कुमारीकेॅं लिखल सुदीर्घ पत्रसॅं स्पष्ट होइत अछि।आइ ओ अपन नश्वर काया तजि गोलोकवासिनी भेलीह, किन्तु हुनक यश:शरीर सदैव हमरा सभहक बीच रहत।

परिवर्तिनि संसारेSस्मिन् मृत: को वा न जायते
स जातो येन जातेन याति वंश: समुन्नतिम्।।

हुनक देहावसान पर श्रद्धांजलि-सुमन अर्पित करैत हुनक जीवन पर संक्षिप्त दृष्टिपात करब हमर ध्येय अछि-

लिली रेक जन्म 26.01.1933 क’  स्व. भीमनाथ मिश्रजीक पहिल सन्तानक रूपमे भेलनि। पिताक व्यक्तित्वक प्रखरता, विद्यानुरागक नैसर्गिकता ओ संस्कारक निर्मलता  हुनका परंपरासॅं भेटलनि। शिक्षा- दीक्षा मिशन स्कूलमे भेलनि जतए मानवमात्रक समानता तथा  मानवीय करुणाक भावना हुनक मन: प्राणकेॅं आप्लावित कएलकनि। संगहिं अङरेजी शिक्षासँ उत्पन्न पाश्चात्य जीवन-दर्शन  सेहो उद्भावित- अनुप्राणित कएलकनि। तैं ओ पुरातन-सनातन ओ आधुनिक-अत्याधुनिक दुहू पक्षक सामंजस्यक उदात्त बिन्दुकेँ अपन जीवनमे ग्रहण करबाक क्षमतासॅं संयुक्त छलीह।

हुनक कथनानुसार ओ अपन ‘जीवनक पहिल कथा ‘‘चण्डी’’ बारह वर्षक अवस्थामे लिखने रहथि,जे  प्रकाशित नहि भए सकलैन्हि।दरभंगाक ‘वैदेही’ नामक पत्रिकामे (1955 ई. मे) पहिल कथा ‘रोगिणी’ छपितहिं हिनक नाम चर्चित भए गेलैन्हि। सबकेँ बुझले छैक जे मैथिलीक ई प्रसिद्ध लेखिका अपन लेखनीसँ हिन्दीक सेवा सेहो निष्ठाक संग करैत रहलीहि अछि।

‘आत्महत्या’, ‘आठवर्ष’, ‘अपमान’ आदि शीर्षकसँ कतोक कथा ई हिन्दीक प्रसिद्ध पत्रिका ‘माया’ मे कल्पनाशरणक नामसँ प्रकाशित करओलनि। हिनक मैथिली कथा ‘रंगीन परदा’ अत्यधिक प्रसिद्धि प्राप्त कएलक। स्त्रीक अस्मिता आ ओहि संस्कारक तीव्र स्वर मुखरित भेल अछि ‘जिद’, ‘चन्द्रमुखी’, ‘माया’, ‘चक्र’, ‘अन्तराल’, ‘रानूदेवी राणा’, ‘अन्तः सलिला’ आदि कथा आओर ‘पटाक्षेप’, ‘मरीचिका’ एवं ‘अवैध’ (अप्रकाशित) नामक औपन्यासिक काव्यकृतिमे। विशाखन नामक प्रतिनिधि कथा, उपसंहार एवं बड्ड पुरान गप,लाली गुरांस,नीक लोक, आत्मकथा समयकेॅं धंङैत आदि हिनक रचना- संसार थिकनि।

लिली रेकेँ 1982 मे साहित्य अकादमीक पुरस्कार हिनक औपन्यासिक कृति ‘मरीचिका’केँ भेटलनि।वस्तुतः नारीमुक्ति-आन्दोलनक प्रतीक रूपमे एहि उपन्यासकेॅं देखल जा सकैछ। पहिल ‘प्रबोध सम्मान’ (2004) स’ सेहो सम्मानित भेल रहथि।

एतेक रचनाक उपहार संसारकेॅं देनिहारि आदरणीया श्रीमती लिली रेकेॅं हुनक  आधुनिक उन्मुक्त जीवन-शैलीक कारण एकटा मुक्त महिला (Liberated woman) मानल जाइत रहलनि,अल्ट्रामाॅडर्न महिलाक व्यंग्य ओ कटाक्षक अनवरत प्रहार कएल जाइत रहलनि । तथापि, “लीक छाड़ि  तीनू चलए शायर, शेर, सपूत”  केर ध्वनि सॅं अभिप्रेरित ओ चलैत रहलीह,अपन बहुआयामी व्यक्तित्वक सकारात्मक चिंतन तथा साहित्यिक कृतिक उपहार समाजकेॅं दैत रहलीह।

आइ ओ हमरा सभहक संग नहिॅं छथि, किन्तु अपन साहित्यक माध्यमसॅं सदैव रहतीह। हुनका लेल वास्तविक श्रद्धांजलि होएत स्त्री आ पुरुषकेॅं फराक नहिॅं, अपितु मात्र मनुष्यक कोटिमे राखल जाइ,ओकर व्यक्तिगत जीवन पर टीका-टिप्पणीक प्रवृत्ति छाड़ि समाजक लेल देल गेल अवदान पर विवेचना कएल जाय।

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